असहाय मैं और छोटू

Child-labour-in-India-Harmony-International121212

कुछ लिखने के लिए कुछ देखना जरुरी है देखने से ज्यादा उसे समझना और महसूस करना जरुरी है और उससे भी ज्यादा उस अहसास से कुछ सीखना जरुरी है। सीखकर अपने जीवन में उसे लागू करना भी जरुरी है ।अक्सर हम देखते तो है समझते भी है और समझदारी के अहसास से सीखते भी है लेकिन सीख के उस अहसास और समझदारी को ठन्डे बस्ते में डालकर बढ़ जाते है । शायद हमें लगता है उस अहसास उस समझदारी को अपनी जिंदगी में लागू करने के लायक नहीं है ।

लेकिन अगर हम महसूस कर सकते है समझ सकते है तो हम उस जिम्मेदारी के लिए भी तैयार है अन्यथा हम समझते ही क्यों?

आप सोच रहे होंगे अहसास जिम्मेदारी समझदारी क्या बला है ?
अनभिज्ञ बनने की कोशिश मात्र है ये ।

ऑफिस के बाहर का ढाबा हो या चाय की दुकान .. हम रोज जाते है रोज एक नाम बुलाते है … छोटू …सबने ही देखा होगा वो छोटा बच्चा .. आपने अहसास किया वो छोटा है.. इस दुकान पे काम करने लायक नहीं है .. ये उम्र उसके यहाँ काम करने की नहीं है .. अब बारी आती है समझदारी की .. हमारे अंदर की संवेदना हिलोरे मारती है .. हम जानते है की उसका यहाँ काम करना गैरकानूनी है .. हममे से कई लोगो ने कई बार संवेदना के ज्वार से आहत होकर पूछा भी होगा छोटू क्यों करते हो यहाँ काम ?? ..स्कूल जाते हो ?? .. आमतौर पर उत्तर यही मिलते है के घर वालो ने बोला .. पैसे के लिए … या घर में कोई कमाने वाला नहीं है .. मन विह्वल होता है .. कई बार हम कुछ पैसे उसकी जेब में डाल देते है ..बहुत मेहरबानी साहब..  सोचते है हम क्या कर सकते है . हा हम कर ही क्या सकते है .. अगले ही पल सारी संवेदनाओ का ज्वार भाटे में बदल जाता है ..और उन्हें हमें किसी फालतू फोल्डर की तरह रीसायकल बिन में डाल के आगे बढ़ जाते है .. अगले दिन फिर वो फोल्डर अपने आप से उसी चाय की दुकान पर रिस्टोर हो जाता है …

अब क्या करे आदत सी हो गयी है अब उस बच्चे के प्रति संवेदना जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है ..कई बार सोचता हु शिकायत दर्ज़ करायी जाये .. पर क्या ये ज्यात्ती नहीं होगी उसके साथ .. मजबूरिया तो रही ही होंगी कुछ .. नहीं तो खेलने कूदने की उम्र में चाय के गिलास क्यों धो रहा होता वो .. क्या उसका मन नहीं करता होगा अच्छी सी ड्रेस पहनकर स्कूल जाऊं . खेलु कूदू?

फिर लगता है अगर उसका काम बंद करा दिया और उसके घर की कमाई का यही एक जरिया हो तो रोटी कोन देगा उसके परिवार को .. साहब सारा दोष तो इस पापी पेट का ही है। और तब सारा देखना समझना महसूस करना धरा का धरा रह जाता है एक मन में टीस उठती है और अपने आपको असहाय पाता हूँ।

पर एक तरफ मैं देश के राजनितिक परिद्श्य को बहुत बारीकी से देखता हु इसलिए एक उम्मीद देश की राजनीतीे से भी बनती है जहा एक चाय वाला प्रधानमन्त्री बनता है .. की वो तो कम से कम इन बच्चों का दर्द समझेगा .. पर निराशा तब होती है जब 1 वर्ष से जादा का समय बीत गया पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया .. मेरी समझ तो उतनी नहीं पर हो सकता है कोई अड़चन हो.. क्या होगा जब इतने बच्चे जो अपना घर चलाते है वो कम करना बंद कर देंगे ..

क्या कभी ऐसा दिन आएगा जब चाय की दुकान पर छोटू नहीं होगा ..क्या इन बच्चों को छोटू नहीं इनके असली नाम की पहचान मिलेगी? .. क्या ये छोटू कभी स्कूल जायेगा? क्या ये छोटू कभी पढ़कर बड़ा आदमी बनेगा? आखिर १/१२५ करोड़  भारत तो ये भी है। पर इस १/१२५ करोड़ भारत का विकास कब होगा ?

Get latest of News and Updates here.